मा .कांशीराम ने जातियों और समुदायों के चमचे किसे और क्यों कहा  – जानें आज की सच्चाई दलितो की 

To whom and why did Mr. Kanshiram say that the spices of castes and communities –

know today’s truth of Dalits

 

“इस लंबी और दुखद कहानी का अंत करने के लिए कांग्रेस ने पूना समझौते का रस चूस लिया और छिलका अछूतों के मुंह पर फेंक  दिया।” -डॉ. बी.आर. आंबेडकर
मा .कांशीराम जी के महा परिनिर्वाण दिवस पर उनकी प्रसिद्ध किताब – चमचा युग से आलेख  – वर्तमान राजनीति में सटीक बैठता हैं 
विभिन्न जातियों और समुदायों के चमचे
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भारत की कुल जनसंख्या में लगभग 85% उत्पीड़ित और शोषित लोग हैं, और कोई नेता नहीं है। वास्तव में ऊंची जातियों के हिंदू उनमें नेतृत्व विहीनता की स्थिति पैदा करने में सफल हुए हैं। यह स्थिति इन जातियों और समुदायों में चमचे बनाने की दृष्टि से सहायक है। विभिन्न जातियों और समुदायों के अनुसार चमचो की  यह श्रेणीया बताई गई हैं
(1) अनुसूचित जातियां-अनिच्छुक चमचे
बीसवीं शताब्दी के दौरान अनुसूचित जातियों का समूचा संघर्ष यह इंगित करता है कि वे उज्ज्वल युग में प्रवेश का प्रयास कर रहे थे किंतु गांधीजी और कांग्रेस ने उन्हें चमचा युग में धकेल दिया। वे उस दबाव में अभी भी कराह रहे हैं। वे वर्तमान स्थिति को स्वीकार नही। कर पाए हैं और उससे निकल भी नहीं पा रहे हैं। इसलिए उन्हें अनिच्छुक चमचे कहा जा सकता हैं
(2) अनुसूचित जनजातियां-नवदीक्षित चमचे
अनुसूचित जनजातियां भारत के संवैधानिक और आधुनिक विकास के दौरान संघर्ष के लिए नहीं जानी जातीं। 1940 के दशक में उन्हें भी अनुसूचित जातियों के साथ मान्यता और अधिकार मिलने लगे भारत के संविधान के अनुसार. 26 जनवरी 1950 के बाद उन्हें अनुसूचित जातियों के समान ही मान्यता और अधिकार मिले। यह सब उन्हें अनुसूचित जातियों के उस संघर्ष के परिणामस्वरूप मिला जिसके चलते राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मत उत्पीड़ित और शोषित भारतीयों के पक्ष में हो गया था आज तक उन्हें भारत के केंद्रीय मंत्रिमंडल में कभी प्रतिनिधित्व नहीं मिलता । फिर भी उन्हें जो कुछ मिल पाता है, वे उसी से संतुष्ट दिखाई देते हैं इससे भी खराब बात यह है कि वे अभी भी इसी मुगालते मे हैं कि उनका उत्पीडक और शोषक ही उनका हितैषी है। इस तरह उन्हें नवदीक्षित चमचे कहा जा सकता हैं क्योंकि उन्हें सीधे-सीधे चमचा युग में दीक्षित किया गया है।
(3) अन्य पिछड़ी जातियां-महत्वाकांक्षी चमचे लंबे समय तक चले संघर्ष के बाद अनुसूचित जातियों के साथ अनुसूचित जनजातियों को मान्यता और अधिकार मिले। इसके परिणामस्वरूप, उन लोगों ने अपनी सामर्थ्य और क्षमताओं से भी बहुत आगे निकलकर अपनी संभावनाओं को बेहतर कर लिया है। यह बेहतरी शिक्षा, सरकारी नौकरियों और राजनीति के क्षेत्रों में सबसे अधिक दिखाई देती है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में इस तरह की बेहतरी ने अन्य पिछडी जातियों की महत्वाकांक्षाओं को जगा दिया है। अभी तक तो वे इस महत्वकांक्षा को पूरा करने में सफल नहीं हुए हैं।
पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने हर दरवाजे पर दस्तक दी, किंतु उनके लिए कोई दरवाजा नहीं खुला। अभी जून 1982 में हरियाणा में हुए चुनावों में हमें उन्हें निकट से देखने मौका मिला। अन्य पिछड़ी जातियों के तथाकथित  छोटे नेता टिकट के लिए हरेक दरवाजा खटखटा थे अत: में हमने देखा कि वे हरियाणा की 90 सीटों में से एक टिकट कांग्रेस (आई) से और एक टिकट लोक दल से ले पाए। आज हरियाणा विधान सभा में अन्य पिछडी जाति का और एक टिकट लोक दल से ले पाए। आज हरियाणा विधान सभा में अन्य पिछडी जाति का न एक विधायक है। कुछ स्थानों विशेषकर दक्षिण के कुछ स्थानों को छोड़ हम उन्हें अनेक नों और अनेक स्तरों पर संघर्ष करने के बावजूद अपने अधिकार पाने से यंचित देखते हैं, जैसा कि हरियाणा में है। वास्तव में, उनकी एक बड़ी संख्या वह सब पाना चाहती है जो सूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को पहले ही मिला हुआ है 3700 से भी अधिक अन्य पिछड़ी जातियों में से लगभग 1000 जातियां न केवल अजा/ अजजा की सूची । में सम्मिलित किए जाने की महत्वाकांक्षा कर रही हैं बल्कि उसके लिए संघर्ष भी कर रही हैं। इस प्रकार अन्य पिछड़ी जातियों का कुल व्यवहार हमें इस यकीन की ओर ले जाता है कि ये महत्वाकांक्षी चमचे हैं।
(4)अल्पसंख्यक-असहाय चमचे
सन 1971 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या में धार्मिक अल्पसंख्यकों का प्रतिशत 17.28 है। 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले उन्हें उनकी आबादी के अनुसार उनका अधिकार मिल रहा था। उसके बाद तो वे पूरे तौर पर भारत की शासक जातियों की दया पर निर्भर हो गए। सांप्रदायिक दंगों की बहुतायत होने के कारण मुसलमान चौकन्ने रहते हैं। ईसाई बेबस घिसट रहे हैं सिख सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बौद्ध तो संभल भी नहीं पाए हैं। इस सबसे यही प्रमाणित होता है कि भारत के अल्पसंख्यक असहाय चमचे हैं।
(ख) विभिन्न दलों के चमचे
“कांग्रेस का दूसरा दुष्कृत्य था अछूत कांग्रेसियों से कठोर पार्टी अनुशासन का पालन करवाना । वे पूरे तौर पर कांग्रेस कार्यकारिणी के नियंत्रण में थे वे ऐसा कोई सवाल नहीं पूछ सकते थे जो कार्यकारिणी को पसंद न हो। वे ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं रख सकते थे जिसमें उसकी अनुमति न हो। वे ऐसा विधान नहीं ला सकते थे जिस पर उसे आपत्ति हो । वे अपनी इच्छानुसार मतदान नहीं कर सकते थे और जो सोचते थे वह बोल नहीं सकते थे। वे वहां बेजुबान नाके हुए मवेशियों की तरह थी। अछूतों के लिए विधायिका में प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का एक उद्देश्य उन्हें इस योग्य बनाना है कि वे अपनी शिकायतों को व्यक्त कर सकें और  गलतियों को सुधार सकें। कांग्रेस ऐसा न होने देने के अपने प्रयासों में सफल और कारगर रही l
“इस लंबी और दुखद कहानी का अंत करने के लिए कांग्रेस ने पूना समझौते का रस चूस लिया और छिलका अछूतों के मुंह पर फेंक दिया।” -डॉ. बी.आर. आंबेडकर
अनुसूचित जातियों के विधायकों की असहायता का वर्णन डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स” में किया है। यह स्थिति 1945 में थी। आने वाले वर्षों में, हमें और भी खराब हालात और भी बड़े पैमाने पर देखने को मिले। उस समय इस तरह का व्यवहार करने और अनुसूचित जातियों में से चमचे बनाने वाली ऊंची जातियों के हिंदुओं की राष्ट्रीय स्तर पर 7 पार्टियां और राज्य तथा क्षेत्रीय स्तर की अनेक पार्टियां हैं जो केवल अनुसूचित जातियों से ही नहीं बल्कि भारत के सभी उत्पीड़ित और शोषित समुदायों से चमचे पैदा कर रही हैं। आज ऊंची जातियों के हिंदुओं की ये सभी पार्टियां रस चूस रही हैं और छिलका उन 85% उत्पीड़ित और शोषित भारतीयों के मुंह पर फेंक रही हैं।
इस प्रकार, विभिन्न दलों में चमचों के इस निर्माण ने हमारे लिए हालात और भी बदतर कर दिए हैं। जो लोग समस्या से निपटना चाहते हैं वे अपने सामने खड़ी और भी बड़ी समस्या के इस पहलू को अनदेखा नहीं कर सकते।
प्रदीप बैरवा
साभार – चमचा युग