हैदराबाद नगर निगम के चुनाव मंगलवार को समाप्त हो चुके है और इन चुनावों में सभी पार्टीयों ने अपनी पूरी ताकत लगा रखी थी। लेकिन इसके बाद भी मतदाताओं ने ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया और बहुत कम मतदान हुआ।
ग्रेटर हैदराबाद में करीब 50 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दू मतदाता हैं, जबकि मुस्लिम आबादी कम है इसी को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने यहां अपनी पूरी ताकत लगा दी है। यह देश का पहला नगर निगम का चुनाव था जिसमें देश के गृहमंत्री से लेकर बीजेपी के बड़े बड़े मंत्रियों के साथ यूपी के सीएम तक ने यहां प्रचार किया। नतीजे 4 दिसंबर को आएंगे इसी वजह से देश की निगाहे इन चुनावों पर टिकी हुई है।
फ़ाइल् फोटो { अमित शाह }
हैदराबाद नगर निगम के 150 सीटों के लिए मतदान हो चुका है और सभी दलों ने यहां अपनी अपनी जीत का दावा भी कर दिया है। बीजेपी इस निकाय में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को टक्कर देने के लिए यहां अपनी पूरी ताकत लगा दी है।
ओवैसी मुल्क और मुसलमानों के लिए फायदेमंद हैं या नुकसानदेह –
———————————————
असदुद्दीन ओवैसी जो कि एमआईएम के सदर और हैदराबाद लोकसभा सीट से सांसद हैं। जिनको लेकर आजकल मुस्लिम कौम में जबरदस्त उत्साह है। काफी मुसलमान उन्हें अपना सियासी रहनुमा मान रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बहुत से लोग ख़ासकर तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों से जुड़े हुए लोग उन्हें भाजपा को लाभ पहुंचाने वाला बता रहे हैं। इसी उत्साह और आरोप को मद्देनजर रखकर यह लेख तैयार किया गया है। इसे पूरा पढेंगे तभी समझ में आएगा कि ओवैसी साहब मुल्क और मुसलमानों के लिए फायदेमंद हैं या नुकसानदेह ?
******************************
जयपुर । ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहाद उल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) जिसे मजलिस और एमआईएम भी कहा जाता है। जो कि एक सियासी पार्टी है। बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी इसके अध्यक्ष (सदर) हैं और वे हैदराबाद लोकसभा सीट से सांसद हैं। ओवैसी और इनकी पार्टी सियासी गलियारों में कुछ बरसों से चर्चा का विषय बनी हुई है। बेबाक और सटीक भाषण तथा संघ परिवार एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को खरी खौटी सुनाने के मामले में ओवैसी मशहूर हैं। आजकल उनको लेकर मुस्लिम कौम में जबरदस्त उत्साह
असदुद्दीन ओवैसी
का माहौल है, उन्हें बहुत से मुसलमान अपना सियासी रहनुमा मान रहे हैं। वहीं उनकी आलोचना भी जमकर हो रही है।
उनके समर्थन और विरोध में सबकी अपनी अपनी दलीलें हैं। लेकिन सच यह है कि मिस्टर ओवैसी को लेकर देशभर की उच्च सियासी चौपालों से लेकर गली नुक्कड़ की चाय चौपालों तक आजकल चर्चा होती है। कोई उन्हें मुल्क और मुसलमानों के लिए फायदेमंद बताता है, तो कोई नुकसानदेह। हम इस लेख में न यह बताना चाहते कि ओवैसी ने कहाँ कहाँ से अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतारे और ना ही यह बताना चाहते हैं कि उन्होंने कितने कितने वोट लिए तथा उनकी वजह से किसको फायदा हुआ और किसको नुकसान। हम सिर्फ इस सवाल का जवाब तलाशना चाहते हैं कि ओवैसी साहब मुल्क और मुसलमानों के लिए फायदेमंद हैं या नुकसानदेह ?
इस सवाल के जवाब से पहले ओवैसी साहब की पार्टी की तारीख (इतिहास) पर थोड़ी नजर डाल लें, तो अच्छा रहेगा ताकि मुद्दा कहीं से अधूरा नजर नहीं आए। मजलिस ए इत्तेहाद उल मुस्लिमीन (एमआईएम) नामक संगठन की स्थापना 12 नवम्बर 1927 को ब्रिटिश भारत की हैदराबाद स्टेट में हुई थी। इसकी स्थापना नवाब महमूद खान के हाथों हुई थी और इसकी स्थापना में हैदराबाद के मशहूर राजनेता सय्यद कासिम रिजवी की अहम भूमिका थी। कासिम रिजवी रजाकार नामक हथियारबन्द संगठन के नेता थे। मजलिस और रजाकार संगठन एक ही थे, जो हैदराबाद स्टेट को एक आजाद राज्य बनाए रखने के हिमायती थे।
आजादी के बाद जब हैदराबाद का भारत संघ में विलय नहीं हुआ, तो भारत सरकार ने फौजी कार्रवाई की। इस भिड़ंत में हैदराबाद स्टेट की फौज, रजाकार संगठन के हथियारबन्द लोगों और भारतीय फौज के बीच जमकर खून खराबा हुआ। इस जंग में हैदराबाद निजाम और रजाकारों की हार हुई तथा हैदराबाद स्टेट का भारतीय संघ विलय हुआ। सय्यद कासिम रिजवी जो कि तब मजलिस के सदर थे, उनको गिरफ्तार कर लिया गया। फिर वे पाकिस्तान चले गए। भारत सरकार ने मजलिस को प्रतिबंधित कर दिया। मजलिस को खड़ा करने में रजाकारों का प्रमुख योगदान था। इसलिए इस प्रतिबंध के साथ मजलिस और रजाकार संगठन दोनों एक तरह से खत्म हो गए।
इस तरह मजलिस का इतिहास दो भागों में है। एक 1927 से लेकर 1948 तक का और दूसरा 1957 में प्रतिबंध हटने के बाद का। भारत सरकार ने 1957 में मजलिस से प्रतिबंध हटा लिया। मजलिस ने अपने नाम और संविधान में बदलाव कर लिया। मजलिस ने अपना नाम ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहाद उल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) कर लिया। यानी नाम की शुरुआत में ऑल इंडिया जोड़ लिया। पाकिस्तान जाने से पहले सय्यद कासिम रिजवी ने मजलिस की कमान हैदराबाद के मशहूर वकील अब्दुल वहीद ओवैसी को सौंप दी थी। असदुद्दीन औवेसी इन्हीं अब्दुल वहीद ओवैसी के पोते हैं।
1957 से मजलिस (एमआईएम) पूरी तरह से ओवैसी खानदान की कमान में है। अब्दुल वहीद ओवैसी के बाद सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी इसके अध्यक्ष बने। जिन्हें सालार ए मिल्लत भी कहा जाता है। मजलिस को चुनावी कामयाबी 1960 में मिली, जब सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी हैदराबाद नगर पालिका के लिए चुने गए। इसके दो साल बाद वे हैदराबाद से विधायक बने। सलाहुद्दीन ओवैसी 1984 में पहली बार हैदराबाद लोकसभा सीट से संसद में पहुंचे। तब से 2004 तक लगातार वे यहाँ से 6 बार सांसद रहे। वे मुस्लिम आरक्षण के हिमायती थे और 29 सितम्बर 2008 में उनका इन्तकाल हो गया।
सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी के बाद उनके पुत्र असदुद्दीन औवेसी मजलिस के सदर बने। असदुद्दीन ओवैसी एक बेबाक और सुलझे हुए वक्ता हैं। वे दीनी (इस्लाम की जानकारी) और दुनियावी तालीम में माहिर हैं। वे एक बैरिस्टर हैं और 25 साल की उम्र में 1994 में वे हैदराबाद की चार मीनार विधानसभा सीट से विधायक चुने गए। असदुद्दीन औवेसी 2004 में हैदराबाद लोकसभा सीट से सांसद चुने गए। तब से लगातार इस सीट से सांसद हैं। यानी 1994 से लेकर आज तक वे किसी चुनाव में नहीं हारे, चाहे वो विधानसभा का हो या लोकसभा का। उनके छोटे भाई अकबरूद्दीन ओवैसी विधायक हैं। जो भड़काऊ बयान के लिए भी मशहूर हैं।
मजलिस का कांग्रेस, टीडीपी, टीआरएस, वीबीए आदि पार्टियों से गठबंधन भी रहा है। कांग्रेस के समर्थन से मजलिस ने हैदराबाद नगर निगम का मेयर भी बनाया था और यूपीए सरकार का हिस्सा भी रही थी। लेकिन आज कांग्रेस के लिए मजलिस एक अछूत पार्टी बन गई, वजह चाहे जो भी हो। इस वक्त मजलिस के दो लोकसभा सांसद और तेलंगाना, महाराष्ट्र एवं बिहार में विधायक हैं। मजलिस की तारीख और सियासी उठाव के बाद चर्चा करें असल मुद्दे की। ओवैसी मुल्क और मुसलमानों के लिए फायदेमंद हैं या नुकसानदेह ? एक राजनेता या व्यक्तिगत तौर पर वे एक भले शख्स नजर आते हैं। लोग उनके दीवाने भी हैं, खासकर मुस्लिम यूथ। लेकिन एक राजनेता की व्यक्तिगत कितनी भी अच्छाइयां हों, जब तक उसके किए कामों, उसकी विचारधारा और उसके सियासी दांव का मुतआला (अध्ययन) गहराई से नहीं किया जाए, तब तक उसके नफे नुकसान सामने नहीं आते हैं।
वे अपनी पार्टी का किससे गठबंधन करते हैं और किस राज्य से उम्मीदवार उतारते हैं, यह उनका खुद की सियासत के नफे नुकसान पर और खुद की मर्जी से तय होता है। उसी तरह जिस तरह से राहुल गांधी, मायावती, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार आदि राजनेता तय करते हैं। कौन किसके वोट काट रहा है और कौन किसको पर्दे के पीछे से चुनाव जीता रहा है ? यह भी कोई बड़ा सवाल नहीं है। क्योंकि अधिकतर राजनेता यह खेल खेलते हैं। हम सबसे पहले बात करते हैं आन्तरिक लोकतंत्र की, तो बहुत सी पार्टियों की तरह मजलिस में भी आन्तरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं है। वहाँ भी सिर्फ एक खानदान यानी ओवैसी खानदान की चलती है। यह तरीका लोकतंत्र और मुल्क के लिए फायदेमंद नहीं है। इसी वजह से बरसों पहले हैदराबाद में मजलिस बचाओ तहरीक भी शुरू हुई थी, जो आज भी चल रही है।
दूसरी बात यह है कि हमारे मुल्क की असल ताकत गंगा जमुनी तहजीब यानी मिलीजुली संस्कृति है और उसके लिए जाति, पंथ वगैरह के नाम पर की गई सियासत और बनाई गई सियासी पार्टियां खतरा हैं। मुल्क को आज एक ऐसी सियासी पार्टी की जरूरत है, जिसमें आन्तरिक लोकतंत्र हो, जो जाति व पंथ के बजाए संवैधानिक मूल्यों एवं रोटी रोजगार के नाम की सियासत करे। तीसरी बात यह है कि ओवैसी साहब जिस अन्दाज़ में आज सक्रिय हैं, उस अन्दाज़ में 2012 से पहले भी सक्रिय थे क्या ? वे तब भी सांसद थे और 20 साल का राजनीतिक अनुभव रखते थे। जवाब है वे सिर्फ हैदराबाद में सक्रिय थे, बाकी देश में नहीं।
अब बात करते हैं मुस्लिम कौम से मुताल्लिक (सम्बंधित)। मुस्लिम कौम ने 1947 के देश विभाजन के बाद सबसे खतरनाक और दर्दनाक दौर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस और 2002 के गुजरात दंगों के दौरान देखा है। देश विभाजन और दंगों के खून खराबे के बीच भी भारतीय मुसलमान मजबूती से अपने मुल्क में एक अच्छी उम्मीद के साथ खड़ा था। क्योंकि गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद और लोहिया जैसे नेताओं ने उन्हें यह अच्छी उम्मीद बंधवा रखी थी। लेकिन 1992 और 2002 में ऐसे नेताओं का अकाल पड़ चुका था तथा मायूस और मजलूम मुसलमानों को उम्मीद बंधवाने वाले राष्ट्रीय स्तर के ऐसे नेता देश में नहीं थे। क्या कोई बताएगा कि ओवैसी साहब के वालिद मोहतरम जो कि इन दोनों दर्दनाक मौकों पर सांसद थे, उन्होंने तब इस लाचार और बेबस कौम के आंसू पौंछने के लिए क्या किया ? आप जवाब तलाशते रहेंगे, लेकिन नहीं मिलेगा और जो मिलेगा उसको सुनकर आप हैरान हो जाएंगे।
मुस्लिम कौम का एक तबका ओवैसी साहब को एक मजबूत सियासी रहनुमा मान रहा है। चाहे मुद्दा तीन तलाक का हो या संघ परिवार को ललकारने का हो। ओवैसी साहब इन मामलों में बेबाकी से खुलकर बोलते हैं। लेकिन मुसलमानों के कुछ मुद्दे और भी हैं, जैसे विकास, वक्फ जायदाद की हिफाजत और आरक्षण। विकास पुराने हैदराबाद शहर को देखकर साफ नजर आ जाता है कि कितना हुआ है। यहाँ दशकों से सांसद, विधायक और नगर पार्षद उन्हीं की पार्टी के लोग हैं। जहाँ तक वक्फ जायदाद की हिफाजत की बात है, तो उसके लिए भी हैदराबाद गवाह है, ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है, वरना मज़मून और लम्बा हो जाएगा।
बात आरक्षण की करें, तो ओवैसी साहब यूपीए सरकार में दस साल शामिल रहे हैं। इस सरकार ने जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस मिश्रा कमिशन बनाया था। जिनकी सिफारिशें आज तक लागू नहीं हुई हैं। मिश्रा कमिशन ने अल्पसंख्यकों को विभिन्न कैटेगरी में 15 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की थी। यूपीए सरकार ने इस रिपोर्ट को सदन के पटल पर भी नहीं रखा। क्या कोई इस सवाल के जवाब की तलाश करेगा कि मिश्रा कमिशन की रिपोर्ट को सदन में रखने की मांग पर ओवैसी साहब ने सदन से कितनी बार वाॅक आउट किया या उस दौर में कितनी बार इस मांग को अवामी मंच से उठाया ? आरक्षण के मुद्दे पर ही एक बात और है। संसद में सांसद किसी मुद्दे पर निजी विधेयक (प्राइवेट मेम्बर बिल) रख सकता है। क्या ओवैसी साहब ने अल्पसंख्यक आरक्षण के मुद्दे पर ऐसा कोई निजी विधेयक संसद में रखा है ? इन सवालों के जवाब तलाशोगे तो आपको अजीबोगरीब कहानियां और मजबूरियाँ मिलेंगी।
आज संघ परिवार नफरत का जहर फैलाता हुआ केन्द्र की सत्ता में पूर्ण बहुमत से काबिज हो गया। जिसकी वजह यह है कि सामने कोई मजबूत और लोकतांत्रिक व्यवस्था वाली सियासी पार्टी नहीं है। जब ऐसी पार्टियां और मजबूत सुलझी हुई लीडरशिप थी, तब संघ परिवार की राजनीतिक शाखा भाजपा 200 सांसदों के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई थी। अब अगर संघ परिवार को उसी की भाषा में जवाब देकर ललकारा जाएगा और उसके खिलाफ मुसलमानों को लामबन्द किया जाएगा, तो सबसे ज्यादा फायदा संघ का होगा और सबसे ज्यादा नुकसान मुल्क और मुसलमानों का होगा। चाहे ऐसा काम ओवैसी साहब करें या कोई दूसरा राजनेता करे।
आज देश में जो सियासी और नफरती माहौल बन रहा है या एक सोची समझी रणनीति के तहत बनाया जा रहा है, वो वैसा ही है जैसा 1940 में था। उस दौर की नफरती और खुदगर्ज़ सियासत ने मुल्क को मजहब की बुनियाद पर तक्सीम (विभाजित) कर दिया। जिसका सबसे ज्यादा नुकसान मुस्लिम कौम को भुगतना पड़ा और आज भी भुगत रही है। जबकि देश विभाजन के समय कई कद्दावर राजनेता ऐसे थे, जिनका लोकतंत्र और भाईचारे में अटूट विश्वास था। वैसे राजनेताओं का आज तो पूरी तरह से अकाल पड़ चुका है। इसलिए आज अगर कोई राजनेता या राजनीतिक दल अपने मफाद के लिए मुल्क में जाति और पंथ की राजनीति कर रहे हैं, वो बड़ी घातक है और इस तरह की सियासत मुल्क को 1940 की दर्दनाक खाई की ओर धकेल देगी, जिसका खामियाजा सभी भारतीयों को भुगतना पड़ेगा |