भाजपा की दलित राज +नीति ……………..

हमेशा की तरह नरेन्द्र मोदी ने मीडिया की तमाम आंशकाओं को मात देते हुए बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया है। चर्चा इसलिए जोरों पर है क्योंकि कोविंद  दलित समुदाय से आते है। नब्बे के दशक को वो समय था जब देश में चारों ओर दलितों के नरसंहार की खबरें आम थी, दलितों पर हो रहे इन अत्याचारों के सिलसिले में दलित सांसदों का एक प्रतिनिधि मंडल जब तत्कालीन राष्ट्रपति से मिलने गया तो “महामहिम” ने दलित सांसदों से मिलने से मना कर दिया, उसी दिन से देश में दलित राष्ट्रपति की मां

ग जोर पकडऩे लगी और इसी दबाव के कारण के.आर. नारायणन राष्ट्रपति बने। लेकिन वर्तमान समय और उस समय की परिस्थितियों में आधारभूत अंतर है, उस समय दलित सांसद एकजुट होकर लगातार दबाव बनायें हुए थे लेकिन आज अनुसूचित जाति की आरक्षित सीट से जीतकर आने वाले लगभग सभी सांसद ‘सेट’ है। हाल के समय में किसी दलित को राष्ट्रपति बनाए जाने जैसी कोई चर्चा या दबाव नहीं था लेकिन अचानक किसी दलित को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने सभी को चौंका दिया है। मोदी ने ये दांव चलकर विपक्ष को भी चारों खाने चित कर दिया है। आमतौर पर आरएसएस और बीजेपी की छवि दलित विरोधी मानी जाती है लेकिन 2014 के आम चुनावों और उसके बाद राज्य के सभी चुनावों में दलित वर्ग में भाजपा की पैठ मजबूत हुई है, दलित राष्ट्रपति बनाकर भाजपा और स्वंय सेवक संघ इस पैठ को ‘चुल्हे’ तक ले जाना चाहते है। दलित राजनीति की शुरूआत आजादी के पहले से ही हो चुकी थी जिसका श्रेय बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जी  को ही जाता है जिनकी छवि दलितों में आज भी एक मसीहा के रूप में बनी हुई है, हालांकि दलितों का यह करिश्माई नेता कांग्रेस से बाहर ही रहा लेकिन बाबा साहब के देहांत के बाद बाबु जगजीवन राम को दलितों ने अपने नेता के रूप में स्वीकार किया शायद यही कारण था कि लंबे समय तक दलित कांग्रेस का वोटबैंक बने रहे। बाबु जगजीवन के बाद के कांशीराम ने दलित नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई लेकिन उनकी राजनीति उत्तरप्रदेश तक ही सीमित रही वह राष्ट्रीय स्तर के नेता बनने में सफलता हासिल नहीं कर पाए। कांशीराम की विरासत जब मायावती तक पहुंची तो इक्कसवीं सदी के पहले दशक में मायावती ने अपनी पहचान एक दलित नेता के रूप में बनाई और एक समय ऐसा भी आया जब वह राष्ट्रीय नेता के रूप में उबरने लगी लेकिन 2014 के आम चुनाव और हाल ही में हुए यूपी के विधानसभा चुनावों ने यह साफ कर दिया कि अब दलित मायावती में अपना नेतृत्व नहीं देखते हैं। बीजेपी के पास स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद बिना किसी दबाव के किसी दलित को राष्ट्रपति बनाने की पेशकश से यह तो साफ जाहिर होता है कि आज दलित समुदाय एक राजनैतिक ताकत के रूप में उभरा है, किसी भी चुनाव से पहले लगभग सभी राजनैतिक दलों के नेताओं के द्वारा होटल से खाना ले जाकर दलितों के घर जाकर खाना और फोटो खिंचवाना आम बात है। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि आखिर दलितों की इस मनुहार का असली कारण क्या है, इसको समझने के लिए चुनाव के कुछ आंकड़ों देखना जरूरी है जो इस मनुहार का असली कारण बताते है। 1996 के आम चुनाव में देश का मतदान प्रतिशत 58 था लेकिन दलितों में यह आंकड़ा 62 प्रतिशत था, 1998 में 62 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया जबकि दलितों में यह आंकड़ा 67 प्रतिशत था। इसके बाद के चुनावों में भी दलितों का मतदान प्रतिशत देश के मतदान प्रतिशत से ज्यादा ही है। यानी इन आंकड़ों से यह बात साफ है कि अन्य समुदायों की तुलना में दलित वर्ग मतदान में ज्यादा विश्वास व्यक्त करता है, यही कारण है कि सभी पार्टियां दलितों को अपने पाले में करना चाहती है। रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर बीजेपी भी ऐसी ही एक कोशिश कर रही है। मोदी-शाह के इस फैसले में दलितों से सहानुभूति कम जबकि अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश ज्यादा नजर आती है क्योंकि जिस व्यक्ति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया है जिनके दलित होने का पता देश को उनके नाम के ऐलान के बाद मालूम हुआ। कोविंद ने कभी भी सडक़ से लेकर संसद तक कहीं भी दलितों के लिए आवाज नहीं उठाई है। ऐसा लगता है कि शायद रामनाथ कोविंद को भी इस बात का अहसास राष्ट्रपति की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद हुआ होगा कि वह दलित है। यह निराशा करने वाली बात है कि राष्ट्रपति जैसे पद का अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की कांग्रेस की पंरपरा को बीजेपी ने भी जारी रखा है। देश के पहले नागरिक का दलित होना कोई आवश्यक बात नहीं है अब तक कितने ही राष्ट्रपति देश को मिलें जिनको उनके मजहब और जाति से ऊपर उठकर याद किया जाता है। बीजेपी के द्वारा एक ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने की कोशिश जिनका दलित संघर्ष से कोइे लेना देना नहीं है आगामी चुनावों की तैयारी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

सूरज कुमार बैरवा                                                                                                                                                                               राजास्थान विश्वद्यिालय, जयपुर