आज के दौर में – भारत का लोकतंत्र और उसके मायने
डाॅ. सत्य प्रकाश वर्मा
(लेखक एक अर्थशास्त्री, संविधान विशेषज्ञ, उद्यमी एवं डिक्की के राजस्थान अध्यक्ष हैं )
आज भारतीय लोकतंत्र की एक ऐतिहासिक अविस्मरणीय घटना – आपातकाल – को 45 वर्ष बीत गये हैं। वो संवैधानिक घोषित आपातकाल था। आज इतने वर्षों बाद भी हालात यही सवाल पूछ रहे हैं कि क्या भारतीय लोकतंत्र आज एक अघोषित आपातकाल के दौर से गुज़र रहा है, जहां लोकतंत्र एक मिथक मात्र बनकर रह गया है ? लोकतंत्र का मतलब केवल आज वोट देना ही रह गया है, ऐसा प्रतीत होता है। किंतु जब जनता के एक बडे़ धडे़ में राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता, वोटिंग मशीनों की प्रामाणिकता, चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली आदि की विश्वसनीयता पर देशव्यापी गर्म बहस होती है, तो यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया का दावा ही लोकतंत्र को संदिग्ध मिथक की ओर ले जाता है। ऐसे में लोकतंत्र के अन्य स्तंभ क्या हैं? लोकतंत्र निस्संदेह -लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा शासन’ के रूप में परिभाषित किया गया है। ज़ाहिर है, यह सही है। लोकतंत्र लोगों की भागीदारी को लागू करता है और इसके लिए हमारे पास लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं। लोकतंत्र के ये चार स्तंभ हैं |
विधान –
विधायी स्तंभ मूल रूप से कानून बनाने के लिए जिम्मेदार है जो एक राज्य या राष्ट्र को नियंत्रित करता है। ये कानून या तो सीधे लोगों (प्रत्यक्ष लोकतंत्र) या लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों (अप्रत्यक्ष लोकतंत्र) द्वारा बनाए जाते हैं। भारत अप्रत्यक्ष लोकतंत्र का अनुसरण करता है और इसीलिए एक सवाल उठता है कि क्या ये प्रतिनिधि भारत के लिए या अपने राजनीतिक जीवन के लिए और अपनी पार्टियों के भविष्य के लिए कानून बना रहे हैं? प्रभुत्व वाले दलों के निहित राजनीतिक हितों के आधार पर कानून बनाए जा रहे हैं या सुधार किए जा रहे हैं, जो लोकतंत्र के निहित स्वार्थ नहीं हैं। हालही में बने कुछ कानून या संशोधन धर्म विशेष या क्षेत्र विशेष या वर्ग विशेष को संविधान सम्मत संरक्षण स्वरूप दिए गए अधिकारों में राजनैतिक हस्तक्षेप से ज्यादा कुछ नहीं दिखते। राजनैतिक कुशलता में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना और वर्षों से सत्ता से बाहर रहने की भड़ास भी कई फैसलों में देखी गई जिसमें लोकतंत्र का हित गौण रहा।
कार्यपालक –
लोकतंत्र का यह स्तंभ विधायी खंड द्वारा गठित कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है, और उनके उचित कार्यान्वयन के लिए आदेश जारी करता है। कार्यकारी खंड का चयन चुनाव प्रणाली, बिगड़ी प्रणाली या योग्यता प्रणाली या ऊपर के मिश्रण के आधार पर किया जाता है। हम भारत में निष्पादन में कितने निष्पक्ष और सक्षम हैं ? काले धन, अघोषित संपत्ति, काम के बदले एहसान जैसे राष्ट्रीय कचरे के नीचे दब कर कार्यदायी संस्थाएं बहुत पहले ही मर चुकी हैं और अपनी विश्वसनीयता खो चुकी हैं चाहे वो संवैधानिक संस्थाएं ही क्यूं ना हों। पक्षपात या आराम या सुविधा के आधार पर निष्पादन भी एक भारतीय लोकतंत्र की एक प्रवृत्ति बन चुकी है। दुर्भाग्य से यह स्तंभ कभी पैरों पर नहीं खड़ा होकर निष्पक्ष हो ही नहीं पाया।
न्यायपालिका –
यह फिर से लोकतंत्र का बहुत महत्वपूर्ण स्तंभ है और यह कानूनों (विधायी द्वारा दिए गए) और आदेशों (कार्यकारी द्वारा जारी) पर एक जांच रखता है और यह सुनिश्चित करता है कि ये कानून और आदेश किसी देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कम नहीं करते हैं। लेकिन जब लोकतंत्र के 4 सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली को ही पक्षपाती और अपारदर्शी बताते हुए सर्वोच्च न्याय तंत्र पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया तो लोकतंत्र सदमे से नहीं मरेगा? स्थानीय न्यायविदों तक पहुँच के कारण विभिन्न स्तरों पर निचली न्यायपालिकायें गाहे बगाहे संदेह के घेरे में रही हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय अमीर लोगों और सत्तारूढ़ सरकारों के लिए भी सुलभ हो गया है, ऐसा अंदेशा भी चिन्तित करता है। इसे संविधान में आस्था के नाम पर हम सरासर झूठ भी मान लें तो भी इस तरह की प्रेस कॉन्फ्रेंस इस स्तंभ को हिला देने के लिए काफी है। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद सार्वजनिक रूप से कई और घटनाओं की रिपोर्ट की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश पर यौन शौषण के फर्जी आरोप, उन्हें कठोर एवम् महत्वपूर्ण निर्णय लेने से रोकने के लिए धमकाना, कोलेसियम प्रणाली के नाम पर न्यायाधीशों के चयन का पक्षपात आदि प्रमुखता से शामिल हैं।
प्रेस / अखबार –
लोकतंत्र का यह आधार सुनिश्चित करता है कि देश के दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले सभी लोग इस बात से अवगत हों कि इसके बाकी हिस्से में क्या हो रहा है। यह उपरोक्त सभी तीन प्रणालियों के काम में पारदर्शिता सुनिश्चित करता है। केवल एक बात आप कह सकते हैं- मीडिया का मतलब है सत्ताधारी सरकार की कठपुतली। यहां तक कि भारतीय लोकतंत्र में इस गैर मौजूदा स्तंभ के बारे में एक शब्द भी लिखना पूरी तरह से अयोग्य है।
ये लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं और यदि इनमें से कोई भी स्तंभ ठीक से काम नहीं कर रहा है, तो कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं लोकतंत्र अभी भी पूरी तरह से निहित नहीं है। उस स्थिति में, इसका तात्पर्य यह है कि हाँ लोकतंत्र हमारे भारत में एक मिथक मात्र सा प्रतीत होता है। भारत में किसी भी स्तंभ को बहुत मजबूत नहीं बनाया गया है। अमेरिकी संविधान में, न्यायालय को शक्तिशाली बनाया गया है जबकि ब्रिटेन में न्यायपालिका पर विधायी हावी है।
मेरा दर्द इन स्तंभों के अस्तित्व या मजबूती पर चर्चा करना नहीं है, बल्कि लोकतंत्र-जनता की नींव है। मेरी चिंता है कि क्रूर राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं द्वारा इन चार स्तंभों का दुरूपयोग करके जनता की रचनात्मक तार्किक सोच को सांप्रदायिक कट्टरता, क्षेत्रीय विभाजन, छद्म राष्ट्रवाद, सामाजिक विद्वेष आदि में उलझा कर वास्तविक राष्ट्रीय जमीनी मुद्दे से ध्यान भटका कर लोकतंत्र की नींव को कमजोर किया जा रहा है जिसमें फर्जी खबरों, गलत एवं भ्रामक तथ्यों का सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से प्रचार इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहा है। स्वस्थ लोकतंत्र में पत्रकार सरकारों की आलोचना करते थे और सरकारें या तो आलोचनाओं को सकारात्मकता से लेकर कार्य व्यवस्था में सुधार करती थी या उसका दमन कर देती थी। दोनों ही परिस्थितियां जनता का परिचय सत्य से करवाती थी । किंतु आज पत्रकारिता को भय सरकारों से ज्यादा उन आक्रामक आलोचकों से जिनकी भाषा और अभद्र शब्दों का चयन पत्रकारिता के साथ-साथ पत्रकार तक की आत्मा को ब्रह्म विलीन करने का सामर्थ्य रखता है। आज यहाँ ‘लोकतंत्र मिथक है’ से बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न यह निकल कर आया है कि कहीं हम लोकतन्त्र के भुलावे में छिपे हुए राजतन्त्र में तो नहीं जी रहे जहां प्रजा के पास -महाराज की जय करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं (चाहे दिल से कहें, लोभ से या भय से या भीड़ तंत्र बनकर या फिर बेवजह, शायद इसलिये कि क्या फर्क पड़ेगा)? राजा कहे रात है, रानी कहे रात है। मंत्री कहे रात है, संतरी कहे रात है। प्रजा भी कहने लगी रात है, ये सुबह सुबह की बात है… बस, यही भारत के लोकतंत्र के हालात हैं।
डाॅ. सत्य प्रकाश वर्मा
(लेखक एक अर्थशास्त्री, संविधान विशेषज्ञ, उद्यमी एवं डिक्की के राजस्थान अध्यक्ष हैं।)